कभी आपने सोचा है कि हम लोगों को उनकी बू से कैसे पहचान लेते हैं? आखिर इसके पीछे क्या रहस्य है कि इंसान दूसरे इंसान को उसकी खुशबू से पहचान लेता है? आज आपको बताते हैं इसी रहस्य के बारे में।

कुछ लोगों के बदन से आने वाली ख़ुशबू इतनी मादक होती है कि लोग उनकी तरफ़ खिंचे चले जाते हैं, वहीं कुछ लोगों की बदबू क़ाबिले-बर्दाश्त नहीं होती। आख़िर, क्या है इंसान के शरीर से निकलने वाली इस गंध का काम? वैज्ञानिकों का मानना है कि तमाम जानवरों के शरीर से ऐसे केमिकल निकलते हैं जो उसके विपरीत लिंगी को अपनी ओर खींचते हैं।  तो क्या इंसानों में भी ऐसा होता है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए दुनिया भर में कई जगह फ़ेरोमोन पार्टियां आयोजित की गईं।

न्यूयॉर्क में साल 2010 में एक ऐसी ही फ़ेरोमोन पार्टी हुई जहां ब्रुकलिन आर्ट गैलेरी में कुछ लोग जमा हुए।  वहां कुछ बैग रखे हुए थे और उनमें बिना धुले हुए कपड़े भरकर रखे गए थे। पार्टी में पहुंचे लोगों को कहा गया कि वो बैग खोलकर उन कपड़ों को सूंघें। जिस कपड़े की ख़ुशबू उन्हें लुभाए, उस कपड़े के मालिक या मालकिन के साथ आपको डेट पर जाने का मौक़ा मिल सकता था। कपड़े सूंघकर साथी तलाशने की ये पार्टी काफ़ी कामयाब रही।  इसके बाद कई और शहरों में ऐसी पार्टी आयोजित की गई। ये उन लोगों के लिए है जिन्हें अपनी सूंघने की ताक़त और विज्ञान पर भरोसा है।

बरसों से लोग इस विचार के समर्थक रहे हैं कि ख़ुशबू से नर या मादा साथी को लुभाया जा सकता है। अपने लिए सेक्स पार्टनर तलाशा जा सकता है। बहुत से लोग तो इसके लिए महंगे ख़ुशबूदार परफ़्यूम ख़रीदते हैं, जिनके बारे में दावे होते हैं कि ये उन्हें पसंदीदा साथी से मिलवाने में मदद करेंगे।

ऐसे कई इत्रों में एंड्रोस्टेनॉन नाम का केमिकल मिला होता है। एंड्रोस्टेनॉन के बारे में कहा जाता है कि ये विपरीत लिंगी साथियों को सेक्स के लिए प्रेरित करता है। बेचने वाले तो ये कहते हैं कि इसकी वजह से महिलाएं उत्तेजित हो जाती हैं और मर्द आकर्षक। इसी तरह एक दूसरा केमिकल एंड्रोस्टेनॉल आपको विपरीत लिंगी साथी की तरफ़ खींचता है और इसी तरह से और भी फ़ेरोमोन बाज़ार में तमाम दावों के साथ बेचे जा रहे हैं।

आख़िर ये फ़ेरोमोन हैं क्या? क्या वाक़ई इनकी मदद से हम विपरीत लिंग के साथियों को रिझा सकते हैं? क्या वाक़ई इनकी मदद से हमारे लिए सेक्स के नए मौक़े हासिल हो जाते हैं? क्या सच में हम ख़ुशबू की मदद से प्यार पाने में कामयाब होते हैं?
पहली बार फ़ेरोमोन शब्द का इस्तेमाल 1959 में हुआ था। जर्मनी के दो वैज्ञानिकों, पीटर कार्लसन और मार्टिन लशर ने ये शब्द ईजाद किया था। उन्होंने बताया था कि जानवरों के शरीर से कुछ ऐसे केमिकल निकलते हैं, जो उनके विपरीत लिंग के साथियों के लिए संकेत जैसे होते हैं। ज़्यादातर फ़ेरोमोन को सेक्स फ़ेरोमोन ही कहा गया क्योंकि ये नर या मादा को एक दूसरे की तरफ़ खींचते थे। एक दूसरे का पता ठिकाना बताते थे।

 

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