कहते हैं कि कि राजा हरिसंह देव ने लगभग 700 साल पहले 1310 ईसवी में सौराठ सभा की प्रथा शुरू की थी। विवाह योग्य बच्चों के माता पिता को परेशानी से बचाने के लिए इसका आयोजन करने की योजना बनी थी। पहले इस मेले का आयोजन सौराठ के साथ सीतामढ़ी के ससौला, झंझारपुर के परतापुर, दरभंगा के सझुआर, सहरसा के महिषी और पूर्णिया कें सिंहासन सहित अन्य स्थानों पर भी किया जाता था, जिसका मुख्यालय सौराठ हुआ करता था, पर अब इस ऐतिहासिक मेले का आयोजन मात्र सौराठ में ही होता है।
हालाकि आज कल इस मेले में शामिल होने के लिए आने वाले लोगों की तादात काफी हम हो गयी है। लोग शायद इसे पुराना समझने लगे हैं, लेकिन एक प्राचीन परंपरा होने के बावजूद ये काफी आधुनिक और वैज्ञानिकता से बनायी गयी व्यवस्था थी। इस मेले में वर वधु के बीच संबंध जोड़ने से पहले देखा जाता था कि उनके बीच कोई ब्लड रिलेशन ना हो। इसके लिए हिंदु विवाह में मानी जाने गोत्र व्यवस्था का आधार लिया जाता था। यानि ध्यान रखा जाता था कि वर वधु सम गोत्र के ना हो और उनके बीच सात पीढ़ियों तक कोई भी रक्त संबंध ना हों। इसके लिए विवाह की अनुमति सभा के पंजीकार से लेनी पड़ती थी और ये व्यवस्था आज बी बरक़रार है।
स्थानीय लोग इसे मेला नहीं सौराठ सभा के नाम से पहचानते हैं। ये सभा बरगद के पेड़ों के नीचे 22 बीघा ज़मीन पर होती है। सभा में शामिल होने के लिए योग्य वर अपने पिता और अन्य परिजनों के साथ आते हैं और चादर बिछाकर बैठ जाते हैं। कन्या पक्ष की ओर से आये हुए लोग संभावित वरों का बाकायदा इंटरव्यू करते हैं और उन्हें पसंद करते हैं। उसके बाद पंजीकार इन संबंधों की जांच कर उसकी अनुमति देते हैं। जांच की पूरी रिर्पोट एक कागज पर हस्ताक्षर सहित दोनों पक्षों को दी जाती है। पहले ये रिपोर्ट भोजपत्र और तामपत्र पर लिखी जाती थी पर अब उन्हें कागज पर दर्ज किया जाता है।