रंजीत कहते हैं, एक दिन में करीब 5 शवों की चीर-फाड़ करते हैं। डॉक्टर्स से कहीं ज्यादा परेशानी लाशों को खींंचकर यहां-वहांं रखने वालोंं को होती है। वे सड़ी-गली लाशों के बीच न सिर्फ रहते हैं, बल्कि उन्हें उठाकर पोस्टमॉर्टम हाउस के अंदर रखते हैं और डॉक्टर्स के देखने से पहले ब्लेड व अन्य औजारों से लाश की चीर-फाड़ करते हैं।
वे कहते हैं कि छोटे-छोटे बच्चे, जिनकी उम्र एक-दो साल होती है, उनकी चीर-फाड़ करना मुश्किल होता है। ऐसे वक्त उनके हाथ भी कांंप जाते हैं। उस टाइम उन्हें लगता है कि वह ये काम छोड़ देंं।
कई साल तक पोस्टमॉर्टम करने वाले जिला अस्पताल के चिकित्सक डॉ. प्रभात चौरसिया बताते हैं कि ये दुनिया के सबसे कठिन कामोंं में से एक है। उनके लिए कई बार मुश्किल आई। वहीं शवों को उठाकर पोस्टमॉर्टम हाउस तक लाने वाले यूसुफ मौलाना और श्याम सुन्दर शर्मा भी इसे मुश्किल काम मानते हैं। वह कहते हैं कि आखिर ये काम इंसान नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा। मरने के बाद भी आखिर मरने वाला इंसान ही होता है।