दूल्हे से पहले लड़की को करनी होती है इससे शादी, उसके बाद ही अपना सकती है दूल्हे को , परंपरा अनोखी है। प्यारी भी। इस परंपरा में संस्कार है तो सरोकार भी। संस्कार प्रकृति के सम्मान का। सरोकार पर्यावरण के संरक्षण का। कभी सुना है आपने… बात बेटियों के पौधे संग ब्याह रचाने की! न सुनी हो तो आपको बता दें, यहां हर घर की बेटियों की शादी पौधे संग होती है। वह भी पूरे विधि-विधान के साथ। गांव के पंचों की उपस्थिति में।
पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका ग्रामीण इलाकों में इस परंपरा के कारण पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काफी मदद मिलती है क्योंकि हर घर किसी न किसी पौधे की देखभाल कर रहा होता है। पौधे से शादी करने की वजह से उसकी सुरक्षा का खास ख्याल रखा जाता है। पौधे को पानी डालने से लेकर उसे कटने से बचाने के लिए भी दुल्हनों के परिजन खासे सक्रिय रहते हैं। पौधे से बेटियों की शादी कराने के पीछे कई मान्यताएं बताई जाती हैं। भुगलू सोरेन बताते हैं कि यह आदिवासियों के प्रकृति से जुड़ाव बनाए रखने का जरिया है। उनके अनुसार पूर्वजों की यह मान्यता भी थी कि इससे दुल्हन की शादी जिस लड़के से हो रही होती है, उसकी सुरक्षा सुनिश्चित हो सकती है। साथ ही लड़की की कुंडली का दोष भी दूर हो जाता है।
दुल्हनें सिंदूर दान करती हैं। पौधे को तीन बार सिंदूर लगाती हैं। यही नहीं, पौधे के ईर्द-गिर्द तीन फेरे भी लेती हैं। दिलचस्प यह कि पौधे संग दुल्हन की शादी का गवाह पूरा गांव बनता है। जिस पौधे से दुल्हन शादी करती है, वह उसका फल जीवन में कभी नहीं खाती और न ही उसकी टहनियां तोड़ती है। इतना ही नहीं, दुल्हन व उसके घर वाले अपने इस ‘जमाई पौधे’ की जीवन भर देखभाल करने का जिम्मा भी उठाते हैं। है न अनोखी परंपरा!
झारखंड के संताल आदिवासी इस परंपरा को आज भी उतनी ही शिद्दत से निभाते हैं, जितनी पहले निभाते थे। संताली में इस शादी को ‘मातकोम बापला’ कहते हैं। मातकोम का शाब्दिक अर्थ है महुआ व बापला का अर्थ है शादी। इसे मातकोम बापला इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि इसमें लड़की की शादी आमतौर पर मातकोम यानी महुआ के पौधे के साथ कराई जाती है। लड़के से शादी से दो तीन घंटे पहले पौधे से शादी की यह परंपरा निभाई जाती है।
सरजामदा के माझी बाबा भुगलू सोरेन बताते हैं कि संताल लड़कियों की पौधे से होने वाली शादी असल शादी की ही तरह होती है, उसमें उतने ही ‘लेग-भेग’ यानी विधियां पूरी की जाती हैं। इस  शादी के लिए दुल्हन को पीले रंग का शादी का जोड़ा पहनाया जाता है और उसी कपड़े में उसका श्रृंगार कर गांव के पंच (गांव के लोग) दुल्हन को पारंपरिक वाद्य यंत्र बजाते हुए घर की महिलाओं की टोली के साथ उस पौधे तक ले जाते हैं। इस दौरान दुल्हन को उसकी मां गोद में उठाकर ले जाती है। पौधे के समीप पहुंचने पर पहले दुल्हन की भाभी रिवाज के मुताबिक पौधे का सूता बांध शृंगार करती है। इसके बाद दुल्हन उस पौधे को सिंदूर लगाती है। इसके बाद उस पौधे के तीन फेरे लेती है। फेरे लेने के बाद पौधे से शादी की परंपरा पूरी हो जाती है।
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