महात्मा गांधी ने किया तिरंगे को सलाम करने से इनकार

जिस तिरंगे को आज हमारा सारा देश अपनी शान मानता है और गर्व से फहराता है, उसी तिरंगे को महात्मा गांधी ने स्वीकार करने से माना कर दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कह दिया था अगर इस तिरंगे को राष्ट्रध्वज घोषित किया गया तो मैं इसे सलाम नहीं करूंगा। गांधी तिरंगे के बीच में चरखा हटाकर ‘अशोकचक्र’ को शामिल करने से बेहद खफा थे।

जब अंग्रेजो ने भारत को छोड़ कर जाने का फैसला कर लिया, तब फिर से राष्ट्रीय ध्वज का सवाल खड़ा हुआ और उस समय संविधान सभा ने डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक नई कमेटी का गठन 23 जून 1947 को किया तथा अगले दिन यानि 24 जून को अंतिम वायसरॉय लार्ड माउंटबेटेन ने अपना प्रस्ताव दिया की भारत और ब्रिटेन के लंबे संबंध रहें हैं इसलिए भारत के झंडे के एक कोने में ब्रिटिश यूनियन जैक का निशान भी होना चाहिए पर अधिकतर लोग इस प्रस्ताव के खिलाफ थे।

22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे की संवैधानिक रूप से घोषणा कर दी। इसमें ऊपर केसरिया, नीचे हरा और बीच में सफेद रंग था। पहले इसमें सफेद रंग पर बीच में गांधीजी का चरखा लगाया गया था लेकिन बाद में इसे बदलकर अशोकचक्र शामिल किया गया।
गांधी जी इस बदलाव के खिलाफ थे इसलिए 6 अगस्त 1947 को गांधी जी ने कहा कि “मेरा ये कहना है कि अगर भारतीय संघ के झंडे में चरखा नहीं हुआ तो मैं उसे सलाम करने से इंकार करता हूं।” असल में गांधी जी का मानना था कि यह चक्र “अशोक की लाट” से लिया गया है जो की हिंसा का प्रतीक है और भारत की आजादी की जंग अहिंसा के सिद्धांतो पर लड़ी गई है। इसलिए अशोक चक्र भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर नहीं होना चाहिए।
पटेल जी और नेहरू जी ने गांधी जी को समझाया की तिरंगे के चक्र का मतलब विकास है और यह अहिंसा का ही प्रतीक है। बाद में काफी अनमने मन से गांधी जी ने इस झंडे को स्वीकृति दे दी और 15 अगस्त 1947 के दिन भारत में हमारा वर्तमान तिरंगा लहराया गया।

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