इन सभी बातों से स्पष्ट है कि धनपति होने पर भी कुबेर का व्यक्तित्व और चरित्र आकर्षक नहीं था। कुबेर रावण के ही कुल-गोत्र के कहे गए है। कुबेर को राक्षस के अतिरिक्त यक्ष भी कहा गया है। यक्ष धन का रक्षक ही होता है, उसे भोगता नहीं। कुबेर का जो दिग्पाल रूप है, वह भी उनके रक्षक और प्रहरी रूप को ही स्पष्ट करता है। पुराने मंदिरों के वाह्य भागों में कुबेर की मूर्तियां पाए जाने का रहस्य भी यही है कि वे मंदिरों के धन के रक्षक के रूप में कल्पित और स्वीकृत हैं । कौटिल्य ने भी खजानों में रक्षक के रूप में कुबेर की मूर्तियां रखने के बारे में लिखा है। शुरू के अनार्य देवता कुबेर, बाद में आर्य देव भी मान लिए गए।
बाद में पुजारी और ब्राह्मण भी कुबेर के प्रभाव में आगए और आर्य देवों की भांति उनकी पूजा का विधान प्रचलित हो गया। तब विवाहादि मांगलिक अनुष्ठानों में कुबेर के आह्वान का विधान हुआ लेकिन यह सब होने पर भी वे द्वितीय कोटि के देवता ही माने जाते रहे।धन को सुचिता के साथ जोड़कर देखने की जो आर्यपरंपरा रही, संभवतः उसमें कुबेर का अनगढ़ व्यक्तित्व नहीं होगा।बाद में शास्त्रकारों पर कुबेर का यह प्रभाव बिल्कुल नहीं रहा इसलिए वे देवताओं के धनपति होकर भी दूसरे स्थान पर ही रहे, लक्ष्मी के समकक्ष न ठहर सके । और लक्ष्मी पूजन की परंपरा ही कायम रही। लक्ष्मी के धन के साथ मंगल का भाव भी जुड़ा हुआ है।
कुबेर के धन के साथ लोकमंगल का भाव प्रत्यक्ष नहीं है । लक्ष्मी का धन स्थायी नहीं, गतिशील है । इसलिए उसका चंचला नाम लोकविश्रुत है जबकि कुबेर का धन खजाने केरूप में जड़ या स्थिरमति है ।