आज गणेश चतुर्थी है और पूरे भारत में यह पर्व बहुत ही हर्षौल्लास से मनाया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं, इस पब्लिक फंक्शन को शुरू करने में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को काफी मुश्किलात और विरोध का सामना करना पड़ा था। हालांकि, सन् 1894 में कांग्रेस के उदारवादी नेताओं के भारी विरोध की परवाह किए बिना दृढ़निश्चय कर चुके लोकमान्य तिलक ने इस गौरवशाली परंपरा की नींव रख ही दी। बाद में सावर्जनिक गणेशोत्सव स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को एकजुट करने का ज़रिया बना।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तिलक अक्सर चौपाटी पर समुद्र के किनारे जाकर बैठते थे और सोचते थे कि कैसे लोगों को एकजुट किया जाए। अचानक उनके दिमाग़ में आइडिया आया, क्यों न गणेशोत्सव को घरों से निकाल कर सार्वजनिक स्थल पर मनाया जाए, ताकि इसमें हर जाति के लोग शिरकत कर सकें। विघ्नहर्ता गणेश पूजा भारत में प्राचीन काल से होती रही है।
हालांकि कांग्रेस पर 1885 से 1905 पर वर्चस्व रखने वाला व्योमेशचंद्र बैनर्जी, सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, बदरुद्दीन तैयबजी और जी सुब्रमण्यम अय्यर जैसे नेताओं का उदारवादी खेमा नहीं चाहता था कि गरम दल के नेता तिलक सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू करें।
अब समय के साथ साथ सार्वजनिक गणेशोत्सव बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हो गया। वीर सावरकर और कवि गोविंद ने नासिक में गणेशोत्सव मनाने के लिए मित्रमेला संस्था बनाई थी। इसका काम था देशभक्तिपूर्ण मराठी लोकगीत पोवाडे आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना। पोवाडों ने पश्चिमी महाराष्ट्र में धूम मचा दी थी। कवि गोविंद को सुनने के लिए भीड़ उमड़ने लगी। राम-रावण कथा के आधार पर लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल होते थे। लिहाज़ा, गणेशोत्सव के ज़रिए आजादी की लड़ाई को मज़बूत किया जाने लगा। इस तरह नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का आंदोलन छेड़ दिया था।
ऐसा माना जाता है कि सार्वजनिक गणेशोत्सव से अंग्रेज घबरा गए थे। इस बारे में रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी गंभीर चिंता जताई गई थी। रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन का विरोध करती हैं और ब्रिटेन के ख़िलाफ़ गीत गाती हैं। स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाने और शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। इतना ही नहीं, अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष ज़रूरी बताया जाता है। सार्वजनिक गणेशोत्सवों में भाषण देने वाले में प्रमुख राष्ट्रीय नेता तिलक, सावकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, रेंगलर परांजपे, मौलिकचंद्र शर्मा, दादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू होते थे।
क्रिसमस के दौरान पुणे में 1995 में कांग्रेस के 11 वें अधिवेशन में तिलक को आम राय से ‘स्वागत समिति’ का प्रमुख बनाया गया। लेकिन कांग्रेस पंडाल में सामाजिक परिषद आयोजित किए जाने के नाम पर पार्टी में ज़बरदस्त विवाद हुआ। लिहाज़ा, तिलक को कांग्रेस अधिवेशन की स्वागत समिति छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। उनका मानना था कि स्वतंत्रता मांगने से कभी नहीं मिलेगी। लिहाजा, इसे लेने के लिए खुला संघर्ष करना पड़ेगा और हर प्रकार के बलिदान के लिए तैयार रहना होगा।
पहले गणेश पूजा घर में होती थी। महोत्सव को सार्वजनिक रूप देते समय तिलक ने उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छूआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने और आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। अंत में इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।